बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- उत्तर व्यस्कावस्था में कौन-कौन से परिवर्तन होते हैं तथा इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप कौन-कौन सी रुकावटें आती हैं?
उत्तर -
(Late adulthood)
50-60 वर्ष की अवस्था उत्तर व्यस्कावस्था कहलाती है। यह अवस्था शारीरिक, मानसिक, संवेगिक, परिवर्तनों की अवस्था है। इस अवस्था में हमारे शरीर में अनेकों परिवर्तन आते हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. शारीरिक परिवर्तन - इस अवस्था में शरीर में अनेकों परिवर्तन होते हैं जैसे
1. पाचन संस्थान में परिवर्तन - इस अवस्था में पाचन संस्थान कमजोर होने लगता है। पाचन तंत्र से निकलने वाले स्राव का स्रावण कम हो जाता है जिसके कारण भोजन ठीक प्रकार से नहीं पचता है । पाचक रसों का ठीक प्रकार से काम न कर पाने के कारण कैल्शियम एवं लौह लवण का अवशोषण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है जिससे शरीर में थकावट, कमजोरी का अनुभव जल्दी होने लगता है। आँतों की क्रियाशीलता कम होने लगती है। कब्ज की समस्या उत्पन्न हो जाती है, आँतों की क्रियाशीलता में कमी आने लगती है जिससे भोज्य पदार्थों का अवशोषण ठीक से नहीं हो पाता है और शरीर में विभिन्न तत्वों की कमी होने लगती हैं।
2. आधारीय चयापचय दर में कमी - इस अवस्था में शारीरिक क्रियाशीलता में कमी आने लगती है और नये तन्तुओं का निर्माण होना कम हो जाता है। अतः आधारीय चयापचय दर में कमी आने लगती है।
3. लम्बाई एवं भार में अन्तर - इस अवस्था में लम्बाई एवं भार में अन्तर आने लगता है। शरीर के ऊतक एवं मांसपेशियाँ सिकुड़ने लगती हैं जिससे व्यक्ति की लम्बाई एवं भारत में अन्तर आने लगता है और व्यक्ति वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता है।
4. नाड़ी संस्थान में अन्तर - इस अवस्था में नाड़ी संस्थान कमजोर होने लगता है। तंत्रिकाएँ कमजोर होने लगती हैं जिससे दृष्टि क्षमता, श्रवण क्षमता, घाण क्षमता कमजोर जोने लगती है। इस अवस्था में मस्तिष्क का भार भी कम होने लगता है। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में परिवर्तन आने से बौद्धिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है।
5. अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से हारमोन का स्रावण कम मात्रा में होना - इस अवस्था में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से हारमोन्स का स्रावण कम होने लगता है जिससे शरीर में हारमोन्स का असन्तुलन होने लगता है। इस अवस्था में थॉयराइड एवं पैराथॉयराइड ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन्स में असन्तुलन आने से अस्थि विकृति की समस्या आने लगती है क्योंकि कैल्शियम का चयापचय एवं अवशोषण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है।
6. हड्डियों एवं दाँतों में परिवर्तन - इस अवस्था में हड्डियाँ कमजोर होने लगती हैं। अस्थि विकृति गठिया रोग आदि होने लगते हैं। शरीर में कैल्शियम तथा फास्फोरस धीरे-धीरे कम होने लगता है जिसके कारण हड्डियाँ कमजोर होने लगती हैं और जरा सी चोट लगने पर टूट जाती हैं। इसलिए इस अवस्था में डॉक्टर की सलाह पर कैल्शियम टेबलेट लेना शुरू कर देना चाहिए।
इस अवस्था में दाँत एवं मसूढ़े भी कमजोर होने लगते हैं। मसूढ़े कमजोर होने से दाँत टूटने लगते हैं और अनेक प्रकार की दाँतों, मसूढ़ों से सम्बन्धित समस्याएँ पैदा होने लगती हैं। दाँतों के टूटने से मुँह की आकृति में भी परिवर्तन आने लगता है।
7. रक्त परिसंचरण तन्त्र में अन्तर - इस अवस्था में रक्त परिसंचरण तन्त्र में परिवर्तन आने लगता है। इस अवस्था में हृदय की पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं जिसके कारण उनमें क्रियाशीलता में कमी आने लगती है। रक्त नलिकाओं में जमाव होने लगता है जिसके कारण उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल का बढ़ना, हृदय रोग आदि होने की सम्भावना होने लगती है। इस अवस्था में नियमित व्यायाम और डॉक्टरी चेकअप करवाते रहना चाहिए।
8. त्वचा एवं बालों में परिवर्तन - इस अवस्था में त्वचा एवं बालों में परिवर्तन आने लगता । वाह्य त्वचा का पतला होना, तैलीय एवं स्वेद ग्रन्थियों के अपक्षय से त्वचा शुष्क एवं खुरदरी होने लगती है। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं, बाल सफेद होने लगते हैं, नाखून कड़े एवं चमकहीन होने लगते हैं।
9. जनन क्षमता में अन्तर - इस अवस्था में जनन क्षमता का ह्रास होने लगता है। स्त्री-पुरुषों की लैंगिक जनन क्षमता कमजोर हो जाती है। कामशक्ति घट जाती है। अतः इस अवस्था में व्यक्ति अध्यात्म की ओर मुड़ने लगते हैं।
10. शारीरिक स्वास्थ्य में परिवर्तन - इस अवस्था में शारीरिक स्वास्थ्य में गिरावट आने लगती है तथा अनेकों स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं जैसे- अनिद्रा, शीघ्र थक जाना, भूख न लगना, कानों में सनसनाहट, त्वचा में संवेदनशीलता, पैरों में समस्या, आँतों सम्बन्धी विकास, अम्लता की समस्या, हृदय विकास की समस्या आदि परिवर्तन होने लगते हैं जिससे व्यक्ति में उदासीनता का भाव उत्पन्न होने लगता है और कुसमायोजना की समस्या उत्पन्न होने लगती है। शारीरिक क्षमता में कमी के कारण शरीर की क्रियाशीलता कम होने लगती है। शारीरिक क्रियाशीलता कम होने से व्यक्ति खुद को असहाय महसूस करने लगता है।
II. मानसिक परिवर्तन - इस अवस्था में मानसिक क्षमतओं का ह्रास होने लगता है। इस अवस्था में मानसिक परिवर्तन तीव्र गति से होने लगते हैं। व्यक्ति की रुचियों, आदतों और मनोवृत्तियों में परिवर्तन आने लगता है। स्मरण शक्ति कम होने लगती है। इन अनेक कारणों से इस अवस्था में समायोजन की समस्या उत्पन्न होने लगती है। चूँकि इस अवस्था के अन्त में व्यावसायिक जीवन के समापन का समय होता है। अतः उनमें यह धारणा उत्पन्न होने लगती है कि अब परिवार व समाज में उनकी आवश्यकता नहीं है। वे दूसरों पर बोझ हैं। उनकी यह अवधारणा मानसिक तनाव पैदा करता है। वे जिद्दी, क्रोधी होने लगते हैं जिससे परिवार के वे साथ समायोजन में कठिनाई महसूस करते हैं।
III. सामाजिक परिवर्तन - इस अवस्था के अन्त में व्यक्ति समाज की भागीदारी और गतिविधियों में हिस्सा लेना बन्द कर देता है। इस समय व्यक्ति सुख, शान्ति और प्रतिष्ठा से जीने की कामना करने लगता है। उनका चिंतन यथार्थवादी हो जाता है। सामाजिक सम्बन्धों के प्रति मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं। इस समय व्यक्ति अपने सन्तान के साथ समायोजन करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि आयु के अन्तराल के कारण दोनों के विचारों, सोचने के तरीकों और मनोवृत्तियों में अन्तर होता है। उचित समायोजन के लिये आवश्यक है कि व्यक्ति अपने परिवार के साथ उचित तालमेल रखे जिससे उनकी वृद्धावस्था मानसिक सन्तुष्टि व शान्ति के साथ व्यतीत हो सके।
चूँकि वृद्धों को आधुनिक समाज द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानता है। समाज यह मानता है कि एक आयु के बाद स्वास्थ्य, आर्थिक दशा व शारीरिक दशा के कमजोर हो जाने से व्यक्ति परिश्रम नहीं कर सकता है। अतः व्यावसायिक समस्याएँ उनके लिये चुनौतियाँ बन जाती हैं जिनका सामना करने की शक्ति इस अवस्था में नहीं रहती है। समाज द्वारा उन्हें द्वितीय श्रेणी प्रदान करने से उनके मन में सुरक्षा से जुड़े कई सवाल उत्पन्न होते हैं जिनका उनके व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक अनेकों परिवर्तन होते हैं जिसके कारण इस अवस्था में व्यक्ति को अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है लेकिन व्यक्ति को अपने आपको कमजोर नहीं समझना चाहिए। धार्मिक कार्यों में रुचि बढ़ानी चाहिए। सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेना चाहिए जिससे शारीरिक क्रियाशीलता बनी रहे और व्यक्ति अपने को असहाय महसूस न कर सके।
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